27 दिसंबर 2013

दर्द तो खूब है आशिकाना नहीं है

पक्षधर – 14,15 (संयुक्तांक)                                सम्पादकीय



     दर्द तो खूब है आशिकाना नहीं है
        (आलोचना की जरूरत आज किसे ?)


 






.............. यह एक बेहद तल्ख़
और हिला देने वाली टिप्पणी है 
                  मेरे समूचे समय पर
(उत्तर कबीर)
हिन्दी-आलोचना को लेकर इधर बराबर यह संदेह प्रकट किया गया है और किया जा रहा रहा है कि वह लगातार कमजोर, लचर, सतही, असम्वादी और अविश्वसनीय हुयी है | आलोचना ने अपनी साख गवांई है | उसकी विश्वसनीयता का दायरा कमतर हुआ है | हिन्दी आलोचना में यह निराशा का दौर है | क्या सचमुच स्थिति इतनी निराशा-जनक है ? एक पक्ष से यह सही लग सकता है पर यह सिक्के का एक पहलू है | नजर यहाँ भी टिकानी चाहिए कि आलोचना की जरूरत आज किसे है ? कौन आज आलोचना की परवाह करता है ? मैं शिद्दत से इस बात को महसूस कर रहा हूँ कि आज आलोचना का लोकतंत्र लगातार घटता-सिमटता जा रहा है ? क्या इसके पीछे एकमात्र कारण यही है कि अब आलोचना और आलोचकों में वह बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी | इसके ठीक उलट भी तो है | कभी अज्ञेय ने कहा था कि, यह सच है कि, नकलची कवियों से कहीं अधिक संख्या और अनुपात नकली आलोचकों का है – धातु उतना खोटा नहीं है जितनी कि कसौटियां ही झूठी हैं | अब तो इसकी पहचान ही गड्ड-मड्ड हुयी जा रही है कि कौन नकलची है और कितने नकली हैं | खोटा कहने की बात तो दूर अब हर धातु’ अपने को कंचन ही मानकर महान हुआ जा रहा है | अगर कसौटी पर कस कर उसे आप कांसा या पीतल कहने की हिमाकत करते हैं तो ‘खोटा’ सिक्का अपने नक्कालेपन को जिस समानता, बराबरी, लोकतंत्र आदि के खोखे में सुरक्षित किये रहता है उन सबको भूलकर मर्यादा की सारी हदें पार कर आपकी ऐसी-तैसी करके आपसे जीवन भर के सारे तकाजे तोड़ लेगा | असहिष्णुता की सारी हदें पार कर ‘युद्धं देहि’, ‘युद्धं देहि’ की मुद्रा में आ जायेगा | इस संघर्ष लिए रणभूमि सोशल मीडिया ने मुहैया करा ही दिया है | प्रच्छन्न लांछन, अस्पष्ट आरोप, अपुष्ट तथ्य और अतार्किक घामड़पन  को आज के साहित्यिक वातावरण का निर्भीक निरभ्रांत सत्य बनाने की पूरी कवायद  चल रही है | भाषा सपाट, तीखी और लट्ठमार होती जा रही है | सनसनी और चटखारापन इसका मिजाज बनता जा रहा है और ‘कनकौवा उड़ाना’ इसकी प्रवृत्ति | सोशल मीडिया ने व्यक्तिगत मतभेद और विरोध को सामाजिक मतभेद और विरोध के नाम पर रोमानवादी छल-प्रपंच का ऐसा मंच दिया है जिसकी कोई सीमा नहीं | उत्तर-पूंजीवादी समाज में मध्यवर्ग के झूठ और प्रवंचना का यह ऐसा जरिया बनता जा रहा है जिसमें हम सुनाना तो अधिक से अधिक चाहते हैं पर सुनना एकदम से पसंद नहीं करते | सुनाने की इतनी अधीर उग्रता और न सुनने की इतनी उद्धत उपेक्षा का माहौल पहले कभी नहीं रहा | तुरंत ‘निपटान’ सोशल मीडिया की रहन में है | अभी नहीं निपटाया तो सबकुछ ख़त्म हो जाएगा | पीछे छूट जाने का इतना भय | यह कहा जा रहा है और सच ही कहा जा रहा है कि, मुद्रण-संस्थाओं के समानांतर सोशल मीडिया ने एक ऐसा ‘स्पेस’ दिया है जहाँ कोई भी लेखक, चिन्तक आलोचक, कवि, कथाकार कुछ भी हो सकता है | पर यदि, नज़र गड़ाई जाय और तवज्जो दिया जाय तो दिखेगा कि, उस स्वतः सुलभ ‘स्पेस’ का अधिकांश हिस्सा पुनरुत्पादित, पुनरावृत्त, विचारहीन तलछट से आच्छादित प्रतिविम्ब मात्र है उससे अधिक कुछ नहीं | यह सच है कि वर्तमान को हम फूंक कर उड़ा नहीं सकते | वर्तमान की अपनी गति, अपनी अपरिहार्यता और अपनी तार्किकता होती है | पर यह भी सच है कि; वर्तमान की इस गति, इस अपरिहार्यता और इस तार्किकता में त्वरा के साथ शामिल जो कुछ है वह इतना समसामयिक है कि ‘अतीत’ होने पर उसकी ‘ऐतिहासिकता’ का कोई तकाजा नहीं बनता | क्योंकि, ‘ऐतिहासिक’ होने की भी अपनी अपरिहार्यता और अपनी तार्किकता होती है | अपनी समय में बुर्जुवा संस्कृति के संकट को पहचानने वाले मार्क्सवादी आलोचक और चिन्तक क्रिस्टोफ़र कॉडवेल के हवाले से कहा जाय तो, “ऐतिहासिक वही होगा जो इतिहास का का सृजनशील अभिकर्ता होगा |”  
रचना और आलोचना में बैर तो पुश्तैनी रहा है | परन्तु, इतना असम्वादी, असहिष्णु, गैर-जिम्मेदाराना माहौल कभी नहीं रहा | ‘लाग-डांट प्यार-बात’ का ‘स्पेस’ ख़त्म नहीं हुआ था | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब निराला को नकारा या उनकी आलोचना की तो निराला ने ‘कालेज का बचुआ’ शीर्षक कविता लिखकर उनकी खबर ली | परन्तु वही निराला हिन्दी साहित्य सम्मलेन के फैजाबाद अधिवेशन में ‘शुकुल जी’ का अपमान बर्दाश्त नहीं करते हैं | प्रसाद, पन्त सबने अपने समय की आलोचना से मुठभेड़ किया है | जवाब दिया है पर उसको विसंवादी नहीं होने दिया | परस्पर मिलने पर दुआ-सलाम, खैर-खातिर को बंद नहीं किया | यह नहीं कि, तुम होगे आलोचक-फालोचक मेरे ठेंगे से | त्रिलोचन अज्ञेय, मुक्तिबोध, किसको नहीं रही है अपने समय की आलोचना से शिकायत ? मुक्तिबोध ने तो हिन्दी की प्रगतिवादी समीक्षा पद्धति की भी सधे शब्दों में खबर ली है | विजय देव नारायण साही जहाँ ‘मार्क्सवादी आलोचना की कमुनिस्ट परिणति’ दिखाते हैं तो धर्मवीर भारती की भी आलोचना करते हैं | ‘विवेचना’ गोष्ठी में सार्वजनिक तौर पर यह उदघोष करते हैं कि ‘लोकायतन’ न पढ़ा है न पढूंगा | रामविलास शर्मा तो रचनाकारों के बीच खासे विवादी और नापसंद किये जाने वाले आलोचक रहे हैं | और केवल अपनी विचारधारा के प्रतिकूल रचनाकारों की ही नहीं वरन खुद अपनी विचारधारा के हमनवा रचनाकारों को भी उन्होंने केवल और केवल प्रशंसा ही नहीं की | नामवर सिंह ने यह कार्य किया है | अशोक वाजपेयी अगर ‘अकेलेपन का वैभव’ लिखकर अज्ञेय के काव्य में मनुष्य की हालत को प्रभावित करने वाली प्राकृतिक, सामजिक, नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों को चिन्हित करते हैं तो ‘बूढा गिद्ध क्यों पंख फैलाए’ जैसा लेख लिखकर उनके शिथिल होने, लडखडाने और पैस्टोरल को पहचानने का साहस भी उन्हीं का है |  आज क्या सचमुच सब का सब बहुत अच्छा और महान लिखा जा रहा है ? भिन्न-भिन्न लेखक संगठनो, खेमों, गुटों के अन्दर प्रश्रीत-पोषित, घोषित-अघोषित सभी तरह के रचनाकार ‘महान’ से नीचे का साहित्य लिखते ही नहीं है| ‘प्रमोटर’ की भूमिका पहले भी लोग निभाते रहे हैं पर साथ ही इसकी पहचान भी कराते रहे हैं कि अमुक रचनाकार बहुत ही कमजोर रचनाकार है | भले ही वह अपने संगठन का ही क्यों न हो ? क्या वह नैतिक साहस बिला गया है या अब सच को सच कहने और सुनने  की जगह लगातार सिकुड़ती-सिमटती जा रही है ? पूरा माहौल ही बिगड़ चुका है | यह कैसा भेड़ियाधसान है ? यह कौन सा समय है ?  
वही आलोचनाएं-समीक्षाएं पसंद की जा रही हैं जो सुखद-सुभाषी और निरापद हैं | एक दूसरे के स्तुति-ब्याज से सारा कारोबार चल रहा है | क्रान्ति पूर्व रूस की साहित्यिक-दुनिया के एक चमकते सितारे निकोलाई अलेक्ज़ान्द्रोविच ने इस तरह की आलोचना की बहुत ही सधी शैली में लिहाड़ी ली है | निकोलाई अलेक्ज़ान्द्रोविच रूस में दास-प्रथा और जारशाही के  कटु आलोचक रहे हैं | पर दुर्भाग्य से मात्र 25 साल की अवस्था में ही वे इस दुनिया को अलविदा कह गए थे | निकोलाई ने लिखा है – तुर्गनेव के नए उपन्यास की विषय-वस्तु इस प्रकार है (यहाँ कथानक का सारांश होता है) | उपन्यास की यहाँ जो हमने बहुत ही क्षीण रूपरेखा दी है उससे पता चल जाता है कि उस उपन्यास में कितना जीवन और कितनी काव्यात्मकता है | एक-एक पन्ना जीवन और कविता की सुगंध से पगा है | जीवन के अत्यंत सूक्ष्म-रंगों, तीक्ष्ण मनोवैज्ञानिक विश्लेश्षण, जन-जीवन के अंतर की हिलोरों और आवेगों–उद्वेगों की गहरी समझ और वास्तविकता के प्रति वह अपनत्व से भरा किन्तु साहसपूर्ण रुख जो कि तुर्गनेव की प्रतिभा की निजी विशेषता है – इन सबका सही आभास उपन्यास को पढ़े बिना नहीं प्राप्त किया जा सकता | उदाहरण के लिए जरा देखिये, कितनी सूक्ष्मता से तुर्गनेव ने इन मनोवैज्ञानिक तत्वों को पेश किया है (यहाँ कथा का एक और सारांश तथा उपन्यास से एक लम्बा उद्धरण दिया जाता है ) | कितना अद्भुत है यह दृश्य जिसका अंकन अत्यंत कमनीय और मुग्धकर हुआ है ((फिर एक उद्धरण) या, फिर देखिये कितनी सौम्यता और साहस से इस चित्र को उभारा गया  है ( उपन्यास से एक और उद्धरण) | क्या यह आपके अंतरतम को नहीं छूता ? इसे पढ़कर क्या आपके ह्रदय का स्पंदन और तीव्र नहीं हो जाता ? क्या आपको ऐसा मह्स्सोस नहीं होता कि इसने आपके जीवन में एक नया सौन्दर्य डाल नयी दिया है एक नयी जान फूंक दिया है | मानव की गरिमा को, सत्यम-शिवम्-सुन्दरम की पवित्र भावना के महान, चिरंतन महत्त्व को यह सामने उजागर नहीं करता, उसे ऊँचा नहीं उठाता ? आज जो पुस्तक समीक्षाएं लिखी या लिखवाई जाती हैं उनका क्या हश्र हो गया है ? किसी प्रकाशन समूह की प्रचार-पत्रिका में एक पुस्तक को जिस ढंग से पेश किया जाता है क्या आज पुस्तक समीक्षाएं उससे भिन्न कुछ कहती हैं ? अगर भिन्न नहीं तब तो यही ठीक है कि एक-आध पेज में पुस्तक परिचय देकर उसका प्रचार कर दिया जाय जिसमें न समीक्षा हो न आलोचना न प्रशंसा हो न मीन-मेख | बस निरापद हो | लेखक को सुख दे |
इस अंक में कोई पुस्तक-समीक्षा नहीं दी जा रही है | रसूल हमजातोव ने ‘मेरा दागिस्तान’ में एक वाकये का जिक्र किया है जिसमें एक साहित्य-संस्थान में एक परीक्षार्थी से पूछा जाता है कि, यथार्थवाद और रोमानवाद में क्या अंतर है ? परीक्षार्थी उत्तर देता है कि, जब उकाब को उकाब कहते हैं तो यह यथार्थवाद है और जब मुर्गे को उकाब कहते हैं तो यह रोमानवाद होता है | क्या सचमुच मुर्गे को मुर्गा कहने का चलन अब खत्म हो गया ? क्या अब मुर्गे को उकाब कहलाना ही पसंद है ?   
साल दो हज़ार तेरह में हमारे बीच से शिवकुमार मिश्र, असगर अली इंजिनियर, मन्ना डे, रघुवंश, राजेन्द्र यादव, गोविन्द पुरुषोत्तम देशपांडे, रेशमा, परमानन्द श्रीवास्तव, के.पी. सक्सेना जैसी कई ऐसी शख्सियतें हमें अलविदा कह चलीं जिनका होना हमारे लिए एक मानी था | पक्षधर की ओर से इन सबको श्रद्धांजलि |


विनोद तिवारी